Tuesday, July 6, 2010

जाति-सरकार-सरोकार

नाम क्या है ?..........क्या करते हो?.......किस जाति से हो?......सवाल सीधा है.....लेकिन सामाजिक हालात और जेहनी सोच जाहिर कर देता है....किसी एक सूबे में नहीं....कमोबेश देश के हर हिस्से में ऐसे सवाल पूछे जाने लगे हैं...अमूमन लोग सामाजिक संरचना और अशिक्षा को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं...लेकिन ये भुलावा देने सरीखा है....पढ़े लिखे लोग भी तो जाति वर्ग के दायरे से बाहर निकलने की जहमत नहीं उठा रहे हैं....और अब तो सरकारी तंत्र ने भी जाति आधारित जनगणना की बात कह कर रही सही कसर पूरी कर दी है......हम किस कदर दोहरी नीति के साथ चलने की आदत रखते हैं.....इसे यूं समझा जा सकता है...कि सरकारी या प्राइवेट किसी भी संस्थान में नौकरी के लिए आवेदन करते समय जाति और धर्म का उल्लेख जरूरी हो जाता है....जरा सोचिए अगर किसी ने मजहब की जगह इंसानियत और जाति के कॉलम में इंसान अंकित करने की जुर्रत की...तो क्या उसे नौकरी मिल पाएगी....शायद नहीं ...लेकिन जब साख के सवाल पर हत्या जैसे आपराधिक मामले सामने आते हैं...तो हंगामा बरप जाता है....आखिर ऐसे मामलों के मूल में झांकने की कोशिश क्यों नहीं की जाती......निरूपमा का दुखद अंत हो...या दिल्ली का तिहरा हत्याकांड बिसात तो जाति के नाम पर ही बिछी है....जब हमने जाति की संवैधानिक व्यवस्था को मान्यता दे रखी है...तो आखिर कैसे अपेक्षा रख सकते हैं...कि लोग उसको साख का सवाल नहीं बनाएंगे....क्या अब तक किसी दल ने या हुक्मरान ने ऐसे प्रावधान तय करने की सिफारिश की है....जहां जाति के बंधन को नजरअंदाज कर जीने वालों को बेहतर जिंदगी और सुविधाएं दी जाएं.....एक ऐसा नगर आबाद करने की कोशिश की जाए...जहां बसने की तमन्ना हर किसी के दिल में रची बसी हो....इस तरह के मसले को लेकर खद्दरधारी कोरी लफ्फाजी तो कर सकते हैं...लेकिन इसे जमीन पर उतारने की कोशिश कतई नहीं....क्योंकि जातिगत समीकरण सियासत के सिपहसलारों के लिए सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने में मददगार है......बात बिहार की हो....यूपी की...या उत्तराखंड...छत्तीसगढ़ की.....या फिर देश की राजधानी दिल्ली और आसपास की....आज सियासी समीकरण विकास के मुद्दे तय नहीं करते...बल्कि जाति की बहुलता तय करती है.....ऐसे में कैसे संभव है....जाति के आधार पर बंटे समाज को एक डोर में पिरोना ....कैसे रोक लग सकती है पूछे जाने वाले जाति संबंधित सवाल पर....या साख का सवाल बना कर की जाने वाली हत्या पर....

3 comments:

  1. आपकी सभी बातों से पूर्णतया सहमत

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  2. Part 1of 4

    बहुत दिनों से एक विचार मेरे मन की गहराइयों में हिलोरे खा रहा था लेकिन उसे मूर्त रूप प्रदान करने के लिए आप सबका सहयोग चाहिए इसलिए उसे आप सबके समक्ष रखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था की पता नहीं कहीं वो असफल और अस्वीकार ना हो जाए लेकिन तभी ये विचार भी आया की बिना बताये तो स्वीकार होने से रहा इसलिए बताना ही सही होगा .

    दरअसल जब भी मैं इस देश की गलत व्यवस्था के बारे में कोई भी लेख पढता हूँ, स्वयं लिखता हूँ अथवा किसी से भी चर्चा होती है तो एक अफ़सोस मन में होता है बार-2 की सिर्फ इसके विरुद्ध बोल देने से या लिख देने से क्या ये गलत व्यवस्थाएं हट जायेंगी , अगर ऐसा होना होता तो कब का हो चुका होता , हम में से हर कोई वर्तमान भ्रष्ट system से दुखी है लेकिन कोई भी इससे बेहतर सिस्टम मतलब की इसका बेहतर विकल्प नहीं सुझाता ,बस आलोचना आलोचना और आलोचना और हमारा काम ख़त्म , फिर किया क्या जाए ,क्या राजनीति ज्वाइन कर ली जाए इसे ठीक करने के लिए ,इस पर आप में से ज़्यादातर का reaction होगा राजनीति !!! ना बाबा ना !(वैसे ही प्रकाश झा की फिल्म राजनीति ने जान का डर पैदा कर दिया है राजनीति में कदम रखने वालों के लिए ) वो तो बहुत बुरी जगहं है और बुरे लोगों के लिए ही बनी है , उसमें जाकर तो अच्छे लोग भी बुरे बन जाते हैं आदि आदि ,इस पर मेरा reaction कुछ और है आपको बाद में बताऊंगा लेकिन फिलहाल तो मैं आपको ऐसा कुछ भी करने को नहीं कह रहा हूँ जिसे की आप अपनी पारिवारिक या फिर अन्य किसी मजबूरी की वजह से ना कर पाएं, मैं सिर्फ अब केवल आलोचना करने की ब्लॉग्गिंग करने से एक step और आगे जाने की बात कर रहा हूँ आप सबसे

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  3. सुन्‍दर प्रयास कर रहे है भाई साहब, धन्‍यवाद.

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