निगाहें कहीं और निशाना कहीं
इंसानी फितरत का है फसाना यही
उनकी मुस्कान पर ना जाना वो कातिल है
निकल ना जाए दिल जलाने का बहाना कहीं
घनघोर अंधेरा फैला है इस बस्ती में
चराग-ए-दिल जला कर ना भटक जाना कहीं
रश्क में अश्क तो आंखों से निकल आते हैं
कह ना देना उन्हें तुम दीवाना कहीं
दरिया और मौज का रिश्ता बड़ा पुराना है
समझ ना लेना इसे तूफान का आना कहीं
रात की बात क्या दिन में भी पाप पलते है
वो कह रहे थे है नया जमाना यही
रात की बात क्या दिन में भी पाप पलते है
ReplyDeleteवो कह रहे थे है नया जमाना यही
बेहतरीन..
badhiya!
ReplyDeleteदिल में लगी बातो को आपने कविता के माध्यम से उकेरा है !
ReplyDeleteदीपावली की शुभकामनाये ................................