Thursday, October 14, 2010

चुनावी बयार

चुनावी बयार ने सूबे बिहार को अलग ही रंग में रंग दिया है.... लालू-नीतीश-रामविलास चौक चौराहों से लेकर लोगों की जुबान पर मौजूद हैं... विकास की राह पर बिहार या फिर थोथा चना बाजे घना... बहस का दौर जारी है... सियासत ही सियासत... पान की दुकान पर सियासत.... चाय की दुकान पर सियासत.... गली में सियासत... घर में भी सियासत.... हर कोई सियासत का जानकार बन गया है.... सियासी समीकरण और जोड़-तोड़ में माहिर नजर आ रहा है ... बस साज छेड़ने की देर है... सियासी धुन बजने में देर नहीं लगती.... भाई लोकतंत्र है, हक तो है... लोगों को जनप्रतिनिधि के बारे में जानने का, समझने का... आखिर लगाम उनके ही हाथ में तो है.... कोई लालू की लालटेन से घर रोशन करने की जुगत में है... तो कोई सुशासन के पक्ष में... कोई दलित उत्थान का हिमायती है... तो किसी का ख्याल है... कि एक बार फिर हाथ से हाथ मिला कर चलना मुनासिब होगा.... लेकिन सियासी त्योहार के उत्सवी माहौल में एक चीज हर बार की तरह कॉमन है... उसमें बदलाव नहीं दिखता...  लोगों के समर्थन का फंडा वहीं पुराना है.... विकास नहीं बल्कि जाति और जमात....  नीतीश ने विकास की पहल की....  बिहार में रहने वाले हर शख्स की जुबान पर यह मौजूद है.... लेकिन फिर भी उन्हें वोट नहीं देंगे.... आखिर उनका गुणगान कैसे करें.... और क्यूं करें....  सवाल सीधा है... और सहज ही समझ में आने वाला भी....  अब भला उनके विकास से यादव वर्ग के लोगों का जुड़ाव क्यों होगा.... ब्राह्मण उनके हिमायती क्यों बनेंगे.... राजपूत भी उन्हें समर्थन क्यों दें... विकास से अलग हट कर भी तो एक मसला है... कि नीतीश ने अपने शासनकाल में कुर्मी और भूमिहार के साथ पिछड़ों को ज्यादा तरजीह दी है... सबसे बड़ा सियासी समीकरण ये है... जो विकास पर फिर एक बार हावी नजर आता है... लालू की लालटेन ने भले ही रोशनी नहीं दी... सूबे में पंद्रह साल अंधेरा कायम रहा था... भले ही विकास बिहार की डिक्शनरी से गायब हो गया था... लेकिन आखिर हैं..तो यादवी नेता... ऐसे में कोई यादव उन्हें कैसे तरजीह ना दे....  सूबे में कमोबेश सियासी समीकरण इसी तर्ज पर बनाए जाते रहे हैं...  राज्य स्तर पर ही नहीं... विधानसभावार भी समीकरण ऐसे ही बनते बिगड़ते हैं... दल और विकास नहीं बल्कि जाति और जमात को लेकर उम्मीदवारों को वोट मिलते हैं... यहीं वजह है... कि राजनीतिक दल भी टिकट का बंटवारा इलाके में जातीय समीकरण पर नजर रख कर ही करते हैं.... और सही मायनों में बदहाल बिहार की तस्वीर उकेरने में इस समीकरण का ही हाथ रहा है....  इस तरह सूबे की राजनीति का नंगा सच एक बार फिर विकास पर भारी नजर आ रहा है...  खैर.... अल्लाह खैर करें.... अब देखना है... कि लालटेन की रोशनी सूबे को जगमग करती है... सुशासन की बयार ठंडक देती है...  हाथ से हाथ मिला कर चलने की ख्वाहिश पूरी होती है...  या बुद्ध की धरती पर दलित उत्थान की नजीर पेश की जाती है....  बस चंद दिन बाकी है...

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