Friday, October 29, 2010

गजल

निगाहें कहीं और निशाना कहीं
इंसानी फितरत का है फसाना यही
उनकी मुस्कान पर ना जाना वो कातिल है
निकल ना जाए दिल जलाने का बहाना कहीं





घनघोर अंधेरा फैला है इस बस्ती में
चराग-ए-दिल जला कर ना भटक जाना कहीं
रश्क में अश्क तो आंखों से निकल आते हैं
कह ना देना उन्हें तुम दीवाना कहीं




दरिया और मौज का रिश्ता बड़ा पुराना है
समझ ना लेना इसे तूफान का आना कहीं
रात की बात क्या दिन में भी पाप पलते है
वो कह रहे थे है नया जमाना यही

3 comments:

  1. रात की बात क्या दिन में भी पाप पलते है
    वो कह रहे थे है नया जमाना यही
    बेहतरीन..

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  2. दिल में लगी बातो को आपने कविता के माध्यम से उकेरा है !
    दीपावली की शुभकामनाये ................................

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