Friday, May 21, 2010

रजनीश और प्रेम: एक नजर

रजनीश को लोगों ने भगवान बना दिया....एक मामूली इंसान से भगवान तक का सफर.....वाकई इसे कमतर नहीं आंका जा सकता है.....वजह बड़ी साफ है....विचार औरों से अलग...लाजवाब दर्शन....और अपनी हर बात के पीछे बेहतरीन तर्क ही थे...जिसने रजनीश को आम से खास बनाया.....प्रेम है सत के द्वार में रजनीश ने कहा है...कि a wise man can not fall in love....और उसे साबित भी किया है....सही भी है बुद्धिमान भला त्यागने की कैसे सोच सकता है.....जिंदगी का सबसे बड़ा फलसफा...जिसको लेकर हर इंसान एक बेहतरीन एक्टर बन जाता है.....प्रेम का दावा करने वाले तमाम रिश्तों की बुनियाद अपेक्षाओं पर टिकी नजर आती है.....ऐसे में भला प्रेम कैसे पनप सकता है....और यही वजह है...कि हर इंसान ख्वाहिशों के अंबार से दब कर झूठी खुशी के सहारे जिंदगी बसर कर रहा है....आडंबर से परे हट कर जिंदगी गुजारने की कोशिश करने वाले कितने लोग हैं....इसका जवाब मुश्किल है....भगवान की तलाश में लोग बेहिसाब पैसा खर्च करते हैं...मंदिरों में दान देते हैं...पुजारी-पंडों को दक्षिणा देते हैं...कथित संतों को सत्कर्म के नाम पर चंदा देते हैं...लेकिन भूखे को भोजन कराने से परहेज रखते हैं.....ऐसे लोग मंदिरों में जाकर भगवान में लीन हो जाते हैं...प्रार्थना करते हैं...ऐ दुनिया बनाने वाले....हे प्रभु...भला करो....लेकिन जिस शख्स के चलते दुनिया में उनका वजूद होता है...उसकी कद्र नहीं करते....घर में मां-बाप की सेवा भले ही नौकर करता हो....भगवान की सेवा खुद करते हैं...वाह री दुनिया...वाह रे लोग....किसी नौटंकी से कम नहीं जिंदगी....ऐसे में भला सुकून कैसे मिल सकता है....खैर बात उस शख्स की हो रही थी...जो चंद सालों के सफर में आम से खास बन गया था...हालांकि महान रजनीश या भगवान रजनीश को एक बुद्धिजीवी की हैसियत से स्वीकारना बेहद मुश्किल है...लेकिन कहीं-कहीं उस शख्स के दर्शन को नजर अंदाज करना भी उतना ही मुश्किल हो जाता है.....आत्मा और परमात्मा की बात करने वालों को आइना दिखाना आसान नहीं होता....बात आस्था की होती है....और इसे सुरक्षित दायरे में रखने के लिए ही कहा गया है...कि आस्था को तर्क की कसौटी पर नहीं परखा जा सकता....सीधी बात है....बात शुरू होने से पहले ही खत्म....इस जगह ही रजनीश की बात अहम हो जाती है....आस्था और तर्क का मिलन....सत्य की खोज में भटकने की जरूरत नहीं....सच सामने है....जिंदगी को कारोबार सरीखा करार देना हिम्मत की बात है...लेकिन इसे झुठलाया नहीं जा सकता....प्रेम की अपनी परिभाषा....अपने लिहाज से...हर इंसान गढ़ता है....प्रेम के पीछे भी एक वजह होती है....राह चलते प्रेम नहीं पनपता...कोई रूपसी किसी कुरूप से प्रेम नहीं करती.....हर रिश्ते का अपना हिसाब किताब है....मां-बाप को भी बेटे-बेटियों से अपेक्षाएं होती हैं....जरूरत झांकने की है....दिल में....दिमाग में.....हर जगह......जिस दिन प्रेम सड़क पर गिरे खून से लथपथ इंसान से हो जाए....जिस दिन प्रेम चिथड़ों में लिपटे शख्स से होने लगे....जिस दिन प्रेम की अनुभूति दायरे से बाहर निकल जाए....उस दिन समझो सही मायने में एक बुद्धिजीवी मानव में बदल गया है........

No comments:

Post a Comment