Wednesday, May 19, 2010

लाल सलाम का कहर

साठ के दशक में पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव के किसानों ने शोषण और सामंतवाद का सशस्त्र विरोध किया.....सामंतों के खिलाफ हथियार बंद बगावत को कानू सान्याल और चारु मजमूदार ने बढ़ावा दिया... और नक्सलवाद ने नक्सलबाड़ी से निकल कर पड़ोसी राज्यों का सफर तय किया....यकीनन हथियार के बल पर हक की मांग या विरोध को कानूनन जायज नहीं ठहराया जा सकता....लेकिन ये भी सच है...कि बगावत का ये रूप उस समय सामने आया...जब सामंतों के जुल्म से परेशान छोटे किसानों के पास कोई विकल्प नहीं बचा था....सान्याल ने नारा दिया था...जो खेत को जोते बोए वो खेत का मालिक होए...सान्याल ने ही इसे सशस्त्र आंदोलन के रूप में स्थापित भी किया...लेकिन बदलते दौर के साथ हक की लड़ाई के नाम पर शुरू नक्सलवाद देश के लिए खतरनाक साबित होने लगा है....नक्सलवादियों ने इसे सशस्त्र आंदोलन की जगह अपराधिक करतूत में बदल दिया है....तंत्र का विरोध...समानांतर सत्ता...किसान हित...वनवासी अधिकार...की बात करने वाले नक्सलियों की काली करतूतों से तो ऐसा ही कुछ साबित होता है.... दंतेवाड़ा की घटना ने नक्सलियों का असली चेहरा सामने ला दिया है...यूं तो पहले से भी अवैध उगाही और भोले भाले लोगों को जबरन नक्सली बनाए जाने की बात सामने आई है...लेकिन सुकमा दंतेवाड़ा सड़क पर यात्री बस को उड़ाने की घटना ने कथित सशस्त्र जनआंदोलन की कलई खोल दी है...इस लैंडमाइंस ब्लास्ट में कई बेगुनाह मारे गए.....इससे पहले नक्सलियों ने छह ग्रामीणों को पुलिस का मुखबिर करार देकर मौत के घाट उतार दिया था....और फिर दहशत फैलाने का खूनी खेल जारी रखते हुए लैंड माइंस ब्लास्ट किया...पिछले तीन दशक में नक्सलियों ने वनवासियों के बीच काफी मजबूत स्थिति दर्ज कराई है...हालांकि इसके लिए भी तंत्र ही जिम्मेदार है...विकास से कोसों दूर मुफलिसी के शिकार अनपढ़ वनवासियों के जेहन में सशस्त्र क्रांति के जरिए नई दुनिया बनाने की बात भरना ज्यादा मुश्किल नहीं...लेकिन अगर इनके हितों का ख्याल राज्य की सरकारों ने किया होता....विकास का उजाला वनवासियों की जिंदगी में रोशनी देता...तो शायद इतनी तादाद में आदिवासियों का जुड़ाव नक्सलवाद से नहीं होता....जब पानी सर से ऊपर गुजरने लगा..तो शासन को विकास का ख्याल आया...आदिवासी हित की बात याद आई...यूं तो कागजों पर विकास की कई योजनाएं चलाई जाती है...लेकिन हकीकत की जमीन से उनका कोई नाता-रिश्ता नहीं होता.....खैर नक्सलियों की कायराना हरकतों के चलते धीरे-धीरे बुद्धिजीवी वर्ग सचेत हुआ है....लेकिन अब भी उनका आदिवासी आबादी में जनाधार है...इससे इनकार नहीं किया जा सकता....सियासी गलियारों में हर नक्सली हमले के बाद उबाल आता है....पक्ष और विपक्ष एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप की बौछार कर देते हैं...लेकिन वक्त आ गया है...कि सियासत के सिपहसलार दलगत राजनीति से ऊपर उठ कर एकजुट होकर सोचें.......क्यों कि राह से भटके हथियार बंद नक्सलियों की जमात को किसी दल की सरकार से कोई लेना-देना नहीं....बंगाल में तो कम्यूनिस्ट की सरकार है....तो छत्तीसगढ़ में भाजपा की....क्या फर्क है इससे....अब तो इस आपराधिक गतिविधि पर नकेल कसने के लिए केंद्र और राज्य को मिल कर नई रणनीति बनाने की जरूरत है...मानवता के हत्यारों के लिए मानवाधिकार की बात भी एक पढ़ा लिखा आम आदमी समझ नहीं पाता...उसका सवाल तो बस ये है...कि ऑपरेशन ग्रीन हंट का हश्र तो देख लिया...अब किस बात का इंतजार किया जा रहा है...सघन जंगली इलाके में सीआरपीएफ और जिला पुलिस की नाकामयाबी को देखते हुए सेना की मदद क्यों नहीं ली जा रही...आखिर सरकार चाहती क्या है...कब तक मारे जाते रहेंगे....जवान.........कब तक होगी बयानबाजी.....कब तक करेंगे शहादत को सलाम....नक्सलियों की हिमायत करने वाले कुछ पढ़े लिखे नामचीन लोग भी हैं...जो मानवाधिकार का हवाला देते हैं.....वनवासी हित की बात करते हैं...इसे शोषण के खिलाफ शोषित वर्ग की सशस्त्र क्रांति बताते हैं....अभी पिछले दिनों एक ऐसी ही शख्सियत ने छत्तीसगढ़ के जंगलों की खाक छानी...और शब्दों के सहारे इस कथित क्रांति का महिमामंडन भी किया...लेकिन उनकी फिक्र ही क्यों की जाए...जो अपराधियों की जमात के समर्थक हैं...जिन्हें वनवासी समाज का दुख तो नजर आता है....लेकिन ब्लास्ट में शहीद जवान की विधवा का विलाप.....और जिगर के टुकड़े को खो देने वाली मां का दर्द समझने में नाकाम रहते हैं....कहने का मतलब सीधा सा है...संविधान में आस्था नहीं रखने वालों की फिक्र बेमायने है....और फिर इस कथित सशस्त्र क्रांति का घिनौना चेहरा भी उभर कर सामने आ गया है....ऐसे में वनवासी हित और शोषण का हवाला देकर सहानुभूति जताने वालों को भी बेमतलब का रोना रोकर काली करतूत को जायज ठहराने की कोशिश बंद कर देनी चाहिए.....उन्हें इतना ही ख्याल है...आदिवासी हित का...तो जंगलों में उनके बीच रह कर कुछ करने की कोशिश करें....एक बात और किसी भी तरह की कार्रवाई के दौरान कसूरवार लोगों के साथ कुछ बेकसूर भी पिस जाते हैं....इससे इनकार नहीं किया जा सकता....हो सकता है....वनवासी समाज को रोशनी देने वाले किसी शख्स को भी परेशानी का सामना करना पड़ा हो...लेकिन जब बात जुनून की हो...त्याग की हो...तो इसकी परवाह कौन करेगा....बहरहाल.......अब जरूरत ऑपरेशन ग्रीन हंट की नहीं...बल्कि ऑपरेशन जैसे को तैसा की है.....

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