अब इस तरह की खबर खास नहीं रही... सरसरी निगाह से देखने के बाद दूसरों से इस मसले पर थोड़ी सी चर्चा होती है... और बात खत्म..... ठीक उसी तरह जैसे पत्रकारिता के पेशे से संवेदनशीलता गायब हो गई है... ट्रेन से गिर कर किसी की मौत की खबर हो... या हत्या... या फिर बलात्कार.. या अपहरण की.... न्यूज रूम में मशीनी अंदाज में उसका ट्रीटमेंट दिया जाता है... खबर स्क्रीन पर दिखती है... और बात खत्म..... इधर पत्रकार कहे जाने वाले लोगों ने भी खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लिया है... काम कर रहे हैं... निकाल दिए गए.. तो अगली नौकरी की तलाश शुरू कर देंगे... सच भी है... मशहूर शायर ने कहा है... कि दर्द का हद से गुजरना भी दवा है... कुछ ऐसी ही हालत इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की भी है.... जानकारों के मुताबिक सुनहरे ख्वाबों के साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़ने की ख्वाहिश रखने वाले कुछ चीजों का ख्याल रखें... तो उन्हें कम से कम मानसिक रूप से प्रताड़ित नहीं होना पड़ेगा.... सबसे पहले तो जिस संस्थान में नौकरी कर रहे हैं... उसके मैनेजमेंट की पॉलिसी का ख्याल रखें... दूसरी प्राथमिकता टीम लीडर के साथ बेहतर रिश्तों की है... इस हद तक कि... तुम दिन को कहो रात तो हम रात कहेंगे... और तीसरी प्राथमिकता है... खुद की बेहतर मार्केटिंग जरूर करें... इन तीनों में से किसी एक पहलू को नजरअंदाज किया... तो बस पत्ता कटते देर नहीं लगेगी.... दौर बदल चुका है... सिर्फ और सिर्फ जानकारी या हार्डवर्क कामयाबी की गारंटी नहीं ... यूं भी मीडिया के बाजारीकरण के बाद तौर तरीके बदलने लाजिमी है... आने वाले दिनों में पत्रकारिता का कोर्स करने वाले अगर मीडिया मैनेजमेंट में स्पेशलाइजेशन लेकर करियर शुरू करें... तो करियर के लिहाज से ज्यादा फायदेमंद होगा.... इस तरह भी कंटेंट इज द किंग का दौर गुजर चुका है.... एडिटोरियल के हाथ में अधिकार ही नहीं रहे... और एडिटर शब्द के मायने बदल चुके हैं...
हां सर सही कहा आपने...
ReplyDeleteलेकिन काम करनेवालों की कद्र हर जगह होती है...
भले ही इसे लोग देर से ही समझे...