Wednesday, February 9, 2011

तीन कविताएं














बचपन कितना अच्छा
ना डर खोने का
ना सोच पाने की
ना चिंता समाज की
ना समझ रिवाज की
ना दुख, ना सुख
बचपन कितना अच्छा
















जिंदगी पतंग की तरह
डोर से बंधी
जो टूट सकती है
एक झटके से
गुम हो सकती है
नीले अंबर में
उलझ सकती है
किसी शाख से
जिंदगी पतंग की तरह

















अल्लाह मस्जिद में
भगवान मंदिर में
दोनों खुश हैं
पंडित और मुल्ला
देते हैं निवाला
तुम्हारी झोपड़ी में
सिर्फ चूल्हा है
नहीं जलता
कई-कई दिन
बेबसी-बेचैनी
नहीं पसंद है
ना अल्लाह
ना भगवान को
ना मुल्ला
ना पंडित को
अल्लाह मस्जिद में
भगवान मंदिर में
दोनों खुश हैं



3 comments:

  1. बचपन सचमुच लाजबाब होता है

    और अल्लाह मस्जिद में भगवान मंदिर में पर निवाला मौलबी और पंडित भगवान को नहीं देते खुद खाते है। असल भगवान तो झोपड़ी मे भूखा बैठा है।

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  2. तीन अलग अलग कवितायें..एक बचपन की, एक जिंदगी की और एक समाज की :)

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