बचपन कितना अच्छा
ना डर खोने का
ना सोच पाने की
ना चिंता समाज की
ना समझ रिवाज की
ना दुख, ना सुख
बचपन कितना अच्छा
जिंदगी पतंग की तरह
डोर से बंधी
जो टूट सकती है
एक झटके से
गुम हो सकती है
नीले अंबर में
उलझ सकती है
किसी शाख से
जिंदगी पतंग की तरह
अल्लाह मस्जिद में
भगवान मंदिर में
दोनों खुश हैं
पंडित और मुल्ला
देते हैं निवाला
तुम्हारी झोपड़ी में
सिर्फ चूल्हा है
नहीं जलता
कई-कई दिन
बेबसी-बेचैनी
नहीं पसंद है
ना अल्लाह
ना भगवान को
ना मुल्ला
ना पंडित को
अल्लाह मस्जिद में
भगवान मंदिर में
दोनों खुश हैं
बचपन सचमुच लाजबाब होता है
ReplyDeleteऔर अल्लाह मस्जिद में भगवान मंदिर में पर निवाला मौलबी और पंडित भगवान को नहीं देते खुद खाते है। असल भगवान तो झोपड़ी मे भूखा बैठा है।
vichaneey mudde ...achchha likha hai ..
ReplyDeleteतीन अलग अलग कवितायें..एक बचपन की, एक जिंदगी की और एक समाज की :)
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